बुधवार, 28 मार्च 2012

नारी विमर्श


स्त्री- विमर्श तो एक छोटा सा वक्फा है। लड़ाई तो कन्या रूप में जन्म के साथ –जिजीविषा की तरह आरम्भ हो जाती है। यह ऐसी लड़ाई है जो पुरूष प्रधान और पितृ सत्तात्मक, असमान, अक्षम्य मूल्यों वाले समाज में बचपन में ही विकृत समाजीकरण के रूप में शुरू हो जाती है। यूं देखा जाए तो मानव इतिहास के इस सबसे बड़े संघर्ष का कोई विश्वव्यापी सामान्यकृत रिकार्ड नही है। यह नितांत निजी लड़ाई है जो नारी स्वतंत्रता, फेमिनिज्म के नारों व सिद्धांतो से कहीं ज्यादा विषम और विकराल है और हर नारी के जीवन में अलग-अलग समस्याओं के रूप में रूबरू होकर टकराती है- जैसे में सांस अवश्य है।
आज विज्ञापन में जो स्त्री की छवि प्रस्तुत की जा रही है वो छवि नकारामक है। स्त्री को विज्ञापन में मात्र एक वस्तु की तरह इस्तेमाल किया जोता है। नारी की इस छवि को बदलने के लिए पहला कदम स्त्री को ही उठाना होगा।
स्त्री की स्वाभाविक स्थिति का और स्त्री के बुनियादी अधिकारों का समर्थन करते हुए सिमोन द बोउवा का मत है-
मेरे मत से स्त्री का सही द्वन्द्व यह है कि या तो वह अपनी अन्यता की नियति को स्वीकार कर ले या फिर आत्मसत्ता की वैयक्तिकता स्थापित करे। औरत वह मानव प्राणी है, जो मूल्यों के जगत में अपने होने का मूल्य उसी जगत में खोज रही है, जो आर्थिक और सामाजिक संरचना को जानने के लिए अनिवार्य है। हमें नारी को पूरी परिस्थिति के अस्तित्वगत परिप्रेक्ष्य में समझना होगा।

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