बुधवार, 28 मार्च 2012

भारतीय सिनेमा का यथार्थ



 भारत में सिनेमा केवल मनोरंजन का माध्यम नही है वह एक तरह का लोक माध्यम भी है। हमारे सामाजिक व्यवहार का ये एक अपरिहार्य हिस्सा बन चुका है।महानगरों और शहरों मे ही नही,बल्कि कसबों और गांवों पर भी इसका प्रभाव देखा जा रहा है।फिल्मों के बारे मे निरंतर चलने वाली चर्चाएं,उनके हर कही बजते गाने और फिल्मी नायकों और नायिकाओं के प्रति गहरा आर्कषण यह बताता है कि सिनेमा हमारी वर्तमान लोक चेतना का,हमारी लोक संस्कृति का हिस्सा बन चुका है।आधुनिक भारतीय साहित्य ने जिस तरह आसानी से पश्चिम की यथार्थवादी परंपरा को अपनाया है,उस तरह से सिनेमा ने क्यों नहीं किया?इसने किन परंपरागत तत्वों को अपने में समाहित किया और किनको हटाकर लोक चेतना में अपना स्थान हासिल किया है ये भी जानना जरूरी है।यह जानना और समझना भी जरूरी होगा कि हिंदी सिनेमा किसका प्रतिनिधित्व करता है और हिंदी सिनेमा वास्तव में हिंदी समाज से किस हद तक जुड़ा है।
  1950 को जब भारत ने जब स्वयं को संप्रभु लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया।हिंदी सिनेमा आरंभ से ही संविधान की मूल आत्मा की अभिव्यक्ति का सबसे लोकप्रिय और सशक्त माध्यम रहा है। आमतौर पर फिल्मों को मनोरंजन के रूप मे ही देखा जाता रहा है,लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में देश को बनाए और बताए रखने मे आमतौर पर भारतीय सिनेमा और खासकर हिंदी सिनेमा के योगदान का उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया।लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हिंदी फिल्मों ने सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भारतीय गणतंत्र की बुनियादी विशेषताओं को काफी हद तक अपनी पहचान और लोकप्रियता का आधार बनाया है। यही कारण है कि आज भी हिंदी सिनेमा हिंदुस्तान के हर हिस्से में ही नही बल्कि एशियाई देशों के बीच सांस्कृतिक एकता का सबसे बड़ा और मजबूत बना हुआ है।
सिनेमा एक लोकप्रिय माध्यम है।इसमें सब तरह के फिल्मकार सक्रिय हैं। सिनेमा को साहित्य मानने वाले फिल्मकार भी है तो ऐसे फिल्मकार भी हैं जिनके लिए यह महज एक पैसा कमाने और अमीर बनने का जरिया है।ऐसे लोगो के लिए फिल्म न तो एक कला का माध्यम है और न ही वे यह मानते हैं कि मनोरंजन के अलावा सिनेमा का सामाजिक उद्देश्य हो सकता है। सिनेमा यदि कला है और यदि उसका कोई सामाजिक उद्देश्य है तो यह मुमकिन नहीं है कि फिल्मकार फिल्मों का निर्माण करते हुए उसके रचनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर विचार न करे।
    मेरा मानना है कि सिनेमा चाहे मनोरंजन के लिए हो या व्यवसाय के लिए या फिल्म कला की अभिव्यक्ति के लिए उसमे अपने दौर का समाज किसी ना किसी रूप में उजागर हुए बिना नही रह सकता।लोकप्रिय सिनेमा ने भाग्यवाद,सामंती आर्दशवाद,प्रतिरोध पर आधारित बर्बरता,भोगवाद और विलासता को प्रोत्साहित किया है तो दूसरी तरफ ऐसी फिल्में भी बनती रही है जिनमें धार्मिक सदभावना, इनसानी भावना,अहिंसा,सामुदायिक एकता, गरीबों और उत्पीडितों के प्रति गहरी सहानुभूति का भाव भी मिलता हैं। भारतीय फिल्में विचारधारा की दृष्टि से गांधीवादी मानवतावाद से लेकर मार्क्सवादी समाजवाद को तरह तरह से व्यक्त करती रही है। अलग अलग दौर में लोकप्रिय सिनेमा पर हम अलग- अलग तरह के प्रभावों को देख सकते है।

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