बुधवार, 28 मार्च 2012

विज्ञापन और महिलाएं



 आज संचार साधन ऐसे सशक्त माध्यम के रूप में उभर कर सामने आया है, जो युवा पीढ़ी में जीवन मूल्यों, आदर्शो एंव नैतिक गुणों को गहराई से प्रभावित कर रहा है। उसके पास ऐसी ताकत है जो समाज में व्याप्त बुराईयों और कुरीतियों को नकारात्मक परिणाम के साथ प्रस्तुत कर सजगता बनाए रख सकता है। जहॉ प्रश्न मीडिया में स्त्री की भागीदारी का आता है तो मीडिया में हमे इसके दो रूप दिखाई देते है। एक रूप खालिस बाजारवाद के रंग में रंगा हुआ है। जिसमे उत्तेजक व अर्धनग्न स्त्री तस्वीरों के माध्यम से अधिकाधिक टी.आर.पी बढ़ाने, पाठक वर्ग को अपनी ओर खींचनें का प्रयास दिखाई देता है। और दूसरा रूप बौद्धिक और भावनात्मक रूप से परिपक्व नारी का जिसमें घर पर और संस्कति को बनाए रखने का भाव भी दिखाई देता है।
आज की उपभोक्ता संस्कृति बाजारवाद, आर्थिक उदारीकरण ने स्त्री को ही खरीदार और स्त्री को ही प्रोडक्ट बेचने का माध्यम बनाया है। उसने सौन्दर्य प्रतियोगिताओं, ग्लैमर, मॉडलों, कलाकारों के माध्यम के माध्यम से एक विशिष्ट स्त्री की छवि गढ़ी है। स्त्री के विवेक व तर्कशक्ति को नजरअन्दाज कर उसे मात्र वस्तु बना दिया जा रहा है, उसकी सुदंरता ही उसके जीवन का लक्ष्य मान लिया गया है। पहले वह अनभिज्ञता के कारण शोषित होती रही, फिर भी शोषित होती रही और आज वह सक्षम होकर भी अपनी लालसा, होड़ अंह के कारण शोषित हो रही है, पर इस शोषण के मुक्ति के उसे अपनी देह की सुकोमलता, मजबूरी, सुचिता, देह प्रदर्शन जैसी भावना से उभर कर अपनी बौद्धिक और भावनात्मक श्रेष्ठता का परिचय देना होगा। इस दष्टि से जो नारी वर्ग सफल है उसे भ्रमित हुए बिना नारी वर्ग का मार्गदर्शन करना होगा और आवश्यकता पड़ने पर उनकी भर्तसना भी करनी होगी। राजनीति उधोग जगत, फिल्मी दुनिया, प्रशासनिक सेवा मे शिखर पर पहुंची सफल महिलाओं को समाज के प्रति अपने दायित्व निभाने की आवश्यकता है।
नाम में ये कैसा मकड़जाल बन गया है, ये कैसी दष्टि उलझ गई,
बुद्धि विवेक पर ये कैसा मेकअप चढ़ गया है,
स्नेह प्रेम पर ये कैसा जीरो फिगर क गया है,
स्व को भूल नारी मन ना जाने क्या तलाश रहा है,
थोड़ा रूक विचार करना होगा,
अपनी दष्टि से अपना मार्ग स्वयं चुन्ना होगा ।
ग्लैमर, वैभव के क्षणिक,
गुम ना हो जावे अपनी ही पहचान में।।
मैं खबर और विचार पाठकों को बेचता हूं और अपने पाठको को विज्ञापनदाताओं को बेचता हूं।
(पी.जी पवार, मराठी समाचार-पत्र समूह सकाल के प्रबंध निदेशक)
अगर किसी के पास दर्शक या पाठक है तो उनकी पैकेजिंग की जा सकती है, उनकी कीमत लगाई जा सकती है और उन्हे विज्ञापनदाताओं को बेचा जा सकता है।      -जालियन डॉयल
यह उन सवालों का जवाब है कि मीडिया अगर इडस्ट्री है तो यहां खरीदार कौन है, बेचने वाला कौन और बेचा क्या जा रहा है। परंपरागत तरीके से कहा जा सकता है कि मीडिया हाउस विक्रेता यानी बेचने वाले है, पाठक और दर्शक खरीदने वाले है और इस बाजार में जो चीज बेची जा रही है ,वे है अखबार, पत्रिकाएं, टी.वी कार्यक्रम या इटंरनेट के कंटेंट यानी समाचार, विचार, फीचर, तस्वीरें और कार्टून आदि। लेकिन इस फरीद-ब्रिकी में मीडिया इंडस्ट्री के कुल राजस्व के सिर्फ 10 से 20 प्रतिशत का लेन-देन है रहा हो तो भी क्या पाठक और दर्शक के नाते कोई कह सकता है कि वही असली खरीदार है? मीडिया कारोबार में जो चीज मुख्य रूप से बेची जा रही है वे पाठक और दर्शक है। विज्ञापनदाताओं के हाथों पाठको और दर्शको को बेचकर ही मीडिया इडंस्ट्री का 80 से 90 प्रतिशत तक पैसा आ रहा है। इस सौदे में बेचने वाले तो मीडिया हाउस ही है और खरीदार है विज्ञापनदाता और बिकने वाली चीज है पाठक और दर्शक।
मनोवैज्ञानिक दष्टि से, शारीरिक विचार से और सामाजिक जीवन की व्यवस्था से स्त्री और पुरूष में विशेष अन्तर रहा है और भविष्य में भी रहेगा, परन्तु यह मानसिक या शारीरिक भेद न किसी की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता है और न किसी की हीनता का विज्ञापन करता है। स्त्री ने स्पष्ट कारणों के अभाव में इस अन्तर को विशेष बुराई समझा केवल यही सच नही है, वरन यह भी जानना होगा कि उसने सामाजिक अन्तर का कारण ढूढने के लिए स्त्रीत्व को क्षत-विक्षत कर डाला।

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