मीडिया मोनोपोली नामक चर्चित किताब के लेखक और पुलित्जर विजेता बेन बैग्डिकियान के मुताबिक आधुनिक लोकतंत्र में राजनीति और विचार के क्षेत्र में विविधता होनी चाहिए ताकि लोग उनके बीच चुनाव कर सकें। इसके लिए जरूरी है कि लोगों तक समाचार, साहित्य, मनोरंजन और लोकसंस्कति अलग-अलग और प्रतिस्पर्धी स्त्रोतों के जरिए पहुंचे। मीडिया में विविधता के सहत्व को यह बात जोरदार तरीके से रेखांकित करती है। विविधता और प्रतिस्पर्धा की बुनियादी शर्त है कि नए कारोबारियों के लिए मीडिया स्थापित करना मुश्किल नहीं होना चाहिए। लेकिन दुनिया के कई और देशो की तरह भारत में भी मीडिया बाजार प्रतिस्पर्धी नही है। इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि मीडिया का अर्थशास्त्र बड़े खिलाड़ियों के पक्ष में झुका हुआ है। अखबार और चैनल शुरू करने का खर्च काफी ज्यादा है लेकिन जैसे-जैसे कोई मीडिया उत्पाद ज्यादा लोगों तक पहुचता है, खर्च घटता चला जाता है। मिसाल तौर पर अखबार में पहली कॉपी के बाद छापी गई हर कॉपी के साथ अखबार की औसत लागत घटती चली जाती है। इसके अलावा एक मीडिया समूह जब कई अलग-अलग उत्पाद निकालता है, तो भी उसके उत्पादों की औसत लागत घटती जाती है।
देश के सबसे ज्यादा बिकने वाले सभी अखबार बड़े मीडिया समूहों के हाथों में है। पिछले कुछ एक दशकों में अस्तिव में आए मीडिया समूह का अखबार टॉप 10 की लिस्ट में नही है। मीडिया में यह प्रवती विश्वव्यापी है। खासकर अखबारों के कारोबार में किसी नए खिलाड़ी के लिए जगह बना पाना बेहद मुश्किल और लगभग नामुमकिन है। कहने को देश में कोई भी चाहे तो अपना अखबार चला सकता है। पहली नजर में लग सकता है कि प्रकाशन शुरू करना मुश्किल काम नहा है लेकिन अखबार उधोग की अर्थव्यवस्था ऐसी है कि किसी भी अखबार को जमने को लिए यानी बिना घाटे की हालत में पहुंचने में दो साल तक का समय लग जाता है। इस दौरान उसका सर्कुलेशन जितना ज्यादा होगा, उसका घाटा उतना ही बड़ा होगा, क्योकि शरूआती समय में विज्ञापन मिलना आसान नहीं होता। घाटा कम करने के लिए अखबार का प्रबंधन प्रिंट ऑर्डर कम रखना चाहेगा। लेकिन प्रिंट ऑर्डर छोटा है और अखबार ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंच रहा है तो उसे इस वजह से पर्याप्त संख्या में और अच्छी दर वाले विज्ञापन नहीं मिल पाएंगे।
ऐसे में कोई भी अखबार व्यवसायिक रूप से हो पाए, इसके लिए अखबार मालिक को कम-से-कम शुरूआती दो साल तक भारी घाटा उठाने के लिए तैयार होना चाहिए। नए खिलाड़ियों के लिए मीडिया कारोबार में आना इस कदर मुश्किल है कि कुछ मीडिया विश्लेषक इसे एक अदृश्य सेंसरशिप करार देते है क्योकि जिन सामाजिक समूहों के पास सीमित पैसा है, वे प्रतियोगिता में शामिल नही हो सकते। भारतीय संदर्भ में देखें तो ग्रामीणों, दलितों, आदिवासियों, पिछड़ी जातियों और मुस्लिमों के हित की बात करने वाला मीडिया शायद इसलिए भी मौजूद नहीं है क्योंकि ये समुदाय आर्थिक रूप से कमजोर है। इस समय भारतीय मीडिया में सर्कुलेशन और रेवेन्यू मॉडल में एक बड़ी विसंगति है। विज्ञापनों का आधार माल और सेवाओं की खपत को माना जाता है। लंबे समय तक मान्यता रही है कि उच्च और मध्यमवर्ग की बड़ी संख्या की वजह से महानगरों में माल और सेवाओं की खपत काफी ज्यादा होती है। महामगरों में छपने और वहां बिकने वाले प्रकाशनों को ज्यादा और महंगे विज्ञापन इसी कारण और इसी तर्क के आधार पर मिलते है। लेकिन नेशनल काउंसिल फॉर एप्लाएड इकोनॉमिक्स रिसर्च (एन.सी.ए.आई.आर) के एक अध्ययन से बात सामने आई कि देश के छह महानगर उत्पाद और सेवाओं का 30 प्रतिशत इस्तेमाल करते है जबकि विज्ञापनों पर खर्च की जाने वाली कुल रकम 60 का प्रतिशत इन महानगरों में खर्च होता है। अभी तक ऐसा चलता रहा है। लेकिन टीयर-2 और टीयर-3 शहरों में तेजी से हो रहे विकास को देखते हुए किसी भी विज्ञापनदाता के लिए ऐसा करना संभव नही है।
भारतीय मीडिया में 2009 को पेड न्यूज या पैकेज पत्रकारिता का साल कहा जाता है। पहली बार खबर बेचने का धंधा इतना खूलकर चला और इसकी इतनी खुलकर चर्चा हुई लेकिन यह आर्थिक मंदी का भी साल था और आई.आर.एस 2009 राउंड-2 के नतीजे बताते है कि यह मीडिया के लिए भी कुछ मायनों में मंदी का साल साबित हुआ। जागरण प्रकाशन ने अपनी सालाना रिपोर्ट में लिखा कि आर्थिक मेदी की वजह से विज्ञापनों से होने वाली आमदनी घटी है और इसका असर मीडिया कंपनियो पर पड़ा है। लेकिन इसका असर भारत में कम और विदेशों में ज्यादा हुआ है। अर्थव्यवस्था की सेहत का खासकर मीडिया पर गहरा असर पड़ता है। ज्यादातर मीडिया संस्थानों की आमदनी अर्थव्यवस्था के ग्राफ के साथ चढ़ती-गिरती है। बढ़ती अर्थव्यवस्था मीडिया को भी समद्ध बनाती है। इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि अर्थव्यवस्था जब विकास दौर में होती है तो कंपनियां विज्ञापनों पर ज्यादा खर्च करती है। ज्यादातर मीडिया संस्थान अपनी कमाई के बड़े हिस्से(90 प्रतिशत) के लिए विज्ञापन पर निर्भर होते है। लंबे समय तक किए गए विश्लेषणों से ये बात साबित हुई है कि अर्थव्यवस्था की दशा का विज्ञापनों के कम या ज्यादा होने से गहरा संबध है। ऐतिहासिक रूझानों से पता चलता है कि जब कभी मंदी की आशंका होती है, कंपनियां विज्ञापनों पर खर्च में कटौती कर देती है।
भारतीय मीडिया पिछले कुछ साल तेज आर्थिक विकास दर की सवारी कर रहा था और कई बार तो मीडिया और मनोरंजन उधाग के तरक्की करने की रफ्तार देश की जी.डी.पी विकास दर से भी ज्यादा रही। मिसाल के तौर पर 2003 से 2008 को दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 9 प्रतिशत के आसपास रही। कई बार उम्मीद भी जताई गई कि भारत दस का दम हासिल कर लेगा। इस दौरान भारतीय मीडिया और मनोरंजन उधोग 16.6 प्रतिशत की औसत सालाना दर से बढ़ा। लेकिन 2008 में आई वैश्विक आर्थिक मंदी का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा और आर्थिक विकास की रफ्तार में सुस्ती आई। इस साल जी.डी.पी की विकास दर घटकर 6.7 प्रतिशत रह गई। मीडिया और मनोरंजन क्षेत्र की विकास भी 2009 में घटकर 1.4 के आसपास रह गई, जबकि एक साल पहले इस उधोग की विकास दर 12 प्रतिशत थी। इसके अलावा न्यूज प्रिंट की कीमतें भी काफी ऊंचे स्तर पर रहीं। कारोबार साल 2008-2009 में न्यूज प्रिंट की कीमत 43,500 रूपए प्रति टन तक पहुंच गई। इस वजह से लगभग सभी अखबारो ने पन्ने घटा दिए। रंगीन पन्ने घट गए और कागज की क्वालिटी से भी समझौता किया गया।न्यूज प्रिंट की कीमत बढ़ने की वजह से कई अखबारो ने 2008 की पहली छमाही में विज्ञापन दरें बढ़ा दी। विज्ञापन की दर बढ़ाने से प्रति विज्ञापन आमदनी तो बढ़ी, लेकिन विज्ञापनदाताओं के लिए विज्ञापन देना और भी खर्चीला हो गया और विज्ञापनों की संख्या लगभग ठहर गई। अखबारो की स्थिति विज्ञापनों के मामले में अच्छी नही रही। 2008 में 3 प्रतिशत बढ़ोतरी के साथ 1.83 लाख का कॉलम सेंटीमीटर तक पहुंचा। वहीम टेलीविजन में विज्ञापनों की संख्या और दिखाए जाने वाले विज्ञापनों का समय बढ़ गया।
ये सारी बातें ये सोचने को मजबूर करती है कि क्या मीडिया इंडस्ट्री 2008 और 2009 में मंदी से सचमुच जूझ रही थी। इन दो सालों में न टी.वी और प्रिंट मीडिया का विज्ञापन घटा, न कारोबार, न दर्शक घटे न पाठक। हद से हद इसे तेज तरक्की के पांच साल बाद का एक अपेक्षाकत कम तेज बढ़ोती का दौंर कहा जा सकता है लेकिन इस दौर को मीडिया उधोग ने अपने लाभ के लिए इस्तेमाल कर लिया और ऐसे बुनियादी और ढांचागत बदलाव कर लिए, जिसका फायदा उसे आने वाले सालों तक मिल सकता है। मिसाल के तौर पर, कर्मचारियों की छंटनी, वेतन बढ़ोतरी पर रोक, कर्मचारियों से ज्यादा काम लेने, काम के घंटे बढ़ाने जैसे कई कदम मंदी के दौर में अपेक्षाकत आसानी मे उठाए गए और कर्मचारियों या सरकार की ओर से इन कदमों का कोई विरोध नहीं किया गया।
देश के बड़े समाचार-पत्रों के मालुकों ने दिल्ली में बैठक करके मिल-जुलकर अखबारों की कीमतें बढ़ाने का फैसला किया। कई मार्केट में अखबारों ने आपसी सहमति से मिलकर दाम बढ़ा दिए। इस वजह से विज्ञापनों से होने वाली आमदनी गिरावट की भरपाई सर्कुलेशन से पूरी हो गई। 2009 में प्रिंट मीडिया की सर्कुलेशन से होने वाली आमदनी पिछले साल के मुकाबले प्रतिशत बढ़कर 7200 करोड़ रूपए हो गई। इस तरह मंदी के साल में भी प्रिंट मीडिया की आमदनी कुल मिलाकर 1.9 प्रतिशत बढ़ी और 2009 में इसकी कुल आमदनी 17500 करोड़ रूपए हो गई। इस तरह वैश्विक आर्थिक मंदी भारतीय मीडिया उधोग के लिए परेशानियों के साथ ही सुविधाएं और बढ़ी हुई आमदनी भी लेकर आया।