बुधवार, 28 मार्च 2012

मीडिया अर्थशास्त्र


मीडिया मोनोपोली नामक चर्चित किताब के लेखक और पुलित्जर विजेता बेन बैग्डिकियान के मुताबिक आधुनिक लोकतंत्र में राजनीति और विचार के क्षेत्र में विविधता होनी चाहिए ताकि लोग उनके बीच चुनाव कर सकें। इसके लिए जरूरी है कि लोगों तक समाचार, साहित्य, मनोरंजन और लोकसंस्कति अलग-अलग और प्रतिस्पर्धी स्त्रोतों के जरिए पहुंचे। मीडिया में विविधता के सहत्व को यह बात जोरदार तरीके से रेखांकित करती है। विविधता और प्रतिस्पर्धा की बुनियादी शर्त है कि नए कारोबारियों के लिए मीडिया स्थापित करना मुश्किल नहीं होना चाहिए। लेकिन दुनिया के कई और देशो की तरह भारत में भी मीडिया बाजार प्रतिस्पर्धी नही है। इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि मीडिया का अर्थशास्त्र बड़े खिलाड़ियों के पक्ष में झुका हुआ है। अखबार और चैनल शुरू करने का खर्च काफी ज्यादा है लेकिन जैसे-जैसे कोई मीडिया उत्पाद ज्यादा लोगों तक पहुचता है, खर्च घटता चला जाता है। मिसाल तौर पर अखबार में पहली कॉपी के बाद छापी गई हर कॉपी के साथ अखबार की औसत लागत घटती चली जाती है। इसके अलावा एक मीडिया समूह जब कई अलग-अलग उत्पाद निकालता है, तो भी उसके उत्पादों की औसत लागत घटती जाती है।
देश के सबसे ज्यादा बिकने वाले सभी अखबार बड़े मीडिया समूहों के हाथों में है। पिछले कुछ एक दशकों में अस्तिव में आए मीडिया समूह का अखबार टॉप 10 की लिस्ट में नही है। मीडिया में यह प्रवती विश्वव्यापी है। खासकर अखबारों के कारोबार में किसी नए खिलाड़ी के लिए जगह बना पाना बेहद मुश्किल और लगभग नामुमकिन है। कहने को देश में कोई भी चाहे तो अपना अखबार चला सकता है। पहली नजर में लग सकता है कि प्रकाशन शुरू करना मुश्किल काम नहा है लेकिन अखबार उधोग की अर्थव्यवस्था ऐसी है कि किसी भी अखबार को जमने को लिए यानी बिना घाटे की हालत में पहुंचने में दो साल तक का समय लग जाता है। इस दौरान उसका सर्कुलेशन जितना ज्यादा होगा, उसका घाटा उतना ही बड़ा होगा, क्योकि शरूआती समय में विज्ञापन मिलना आसान नहीं होता। घाटा कम करने के लिए अखबार का प्रबंधन प्रिंट ऑर्डर कम रखना चाहेगा। लेकिन प्रिंट ऑर्डर छोटा है और अखबार ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंच रहा है तो उसे इस वजह से पर्याप्त संख्या में और अच्छी दर वाले विज्ञापन नहीं मिल पाएंगे।
ऐसे में कोई भी अखबार व्यवसायिक रूप से हो पाए, इसके लिए अखबार मालिक को कम-से-कम शुरूआती दो साल तक भारी घाटा उठाने के लिए तैयार होना चाहिए। नए खिलाड़ियों के  लिए मीडिया कारोबार में आना इस कदर मुश्किल है कि कुछ मीडिया विश्लेषक इसे एक अदृश्य सेंसरशिप करार देते है क्योकि जिन सामाजिक समूहों के पास सीमित पैसा है, वे प्रतियोगिता में शामिल नही हो सकते। भारतीय संदर्भ में देखें तो ग्रामीणों, दलितों, आदिवासियों, पिछड़ी जातियों और मुस्लिमों के हित की बात करने वाला मीडिया शायद इसलिए भी मौजूद नहीं है क्योंकि ये समुदाय आर्थिक रूप से कमजोर है। इस समय भारतीय मीडिया में सर्कुलेशन और रेवेन्यू मॉडल में एक बड़ी विसंगति है। विज्ञापनों का आधार माल और सेवाओं की खपत को माना जाता है। लंबे समय तक मान्यता रही है कि उच्च और मध्यमवर्ग की बड़ी संख्या की वजह से महानगरों में माल और सेवाओं की खपत काफी ज्यादा होती है। महामगरों में छपने और वहां बिकने वाले प्रकाशनों को ज्यादा और महंगे विज्ञापन इसी कारण और इसी तर्क के आधार पर मिलते है। लेकिन नेशनल काउंसिल फॉर एप्लाएड इकोनॉमिक्स रिसर्च (एन.सी.ए.आई.आर) के एक अध्ययन से बात सामने आई कि देश के छह महानगर उत्पाद और सेवाओं का 30 प्रतिशत इस्तेमाल करते है जबकि विज्ञापनों पर खर्च की जाने वाली कुल रकम 60 का प्रतिशत इन महानगरों में खर्च होता है। अभी तक ऐसा चलता रहा है। लेकिन टीयर-2 और टीयर-3 शहरों में तेजी से हो रहे विकास को देखते हुए किसी भी विज्ञापनदाता के लिए ऐसा करना संभव नही है।
भारतीय मीडिया में 2009 को पेड न्यूज या पैकेज पत्रकारिता का साल कहा जाता है। पहली बार खबर बेचने का धंधा इतना खूलकर चला और इसकी इतनी खुलकर चर्चा हुई लेकिन यह आर्थिक मंदी का भी साल था और आई.आर.एस 2009 राउंड-2 के नतीजे बताते है कि यह मीडिया के लिए भी कुछ मायनों में मंदी का साल साबित हुआ। जागरण प्रकाशन ने अपनी सालाना रिपोर्ट में लिखा कि आर्थिक मेदी की वजह से विज्ञापनों से होने वाली आमदनी घटी है और इसका असर मीडिया कंपनियो पर पड़ा है। लेकिन इसका असर भारत में कम और विदेशों में ज्यादा हुआ है। अर्थव्यवस्था की सेहत का खासकर मीडिया पर गहरा असर पड़ता है। ज्यादातर मीडिया संस्थानों की आमदनी अर्थव्यवस्था के ग्राफ के साथ चढ़ती-गिरती है। बढ़ती अर्थव्यवस्था मीडिया को भी समद्ध बनाती है। इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि अर्थव्यवस्था जब विकास दौर में होती है तो कंपनियां विज्ञापनों पर ज्यादा खर्च करती है। ज्यादातर मीडिया संस्थान अपनी कमाई के बड़े हिस्से(90 प्रतिशत) के लिए विज्ञापन पर निर्भर होते है। लंबे समय तक किए गए विश्लेषणों से ये बात साबित हुई है कि अर्थव्यवस्था की दशा का विज्ञापनों के कम या ज्यादा होने से गहरा संबध है। ऐतिहासिक रूझानों से पता चलता है कि जब कभी मंदी की आशंका होती है, कंपनियां विज्ञापनों पर खर्च में कटौती कर देती है।
भारतीय मीडिया पिछले कुछ साल तेज आर्थिक विकास दर की सवारी कर रहा था और कई बार तो मीडिया और मनोरंजन उधाग के तरक्की करने की रफ्तार देश की जी.डी.पी विकास दर से भी ज्यादा रही। मिसाल के तौर पर 2003 से 2008 को दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 9 प्रतिशत के आसपास रही। कई बार उम्मीद भी जताई गई कि भारत दस का दम हासिल कर लेगा। इस दौरान भारतीय मीडिया और मनोरंजन उधोग 16.6 प्रतिशत की औसत सालाना दर से बढ़ा। लेकिन 2008 में आई वैश्विक आर्थिक मंदी का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा और आर्थिक विकास की रफ्तार में सुस्ती आई। इस साल जी.डी.पी की विकास दर घटकर 6.7 प्रतिशत रह गई। मीडिया और मनोरंजन क्षेत्र की विकास भी 2009 में घटकर 1.4 के आसपास रह गई, जबकि एक साल पहले इस उधोग की विकास दर 12 प्रतिशत थी। इसके अलावा न्यूज प्रिंट की कीमतें भी काफी ऊंचे स्तर पर रहीं। कारोबार साल 2008-2009 में न्यूज प्रिंट की कीमत 43,500 रूपए प्रति टन तक पहुंच गई। इस वजह से लगभग सभी अखबारो ने पन्ने घटा दिए। रंगीन पन्ने घट गए और कागज की क्वालिटी से भी समझौता किया गया।न्यूज प्रिंट की कीमत बढ़ने की वजह से कई अखबारो ने 2008 की पहली छमाही में विज्ञापन दरें बढ़ा दी। विज्ञापन की दर बढ़ाने से प्रति विज्ञापन आमदनी तो बढ़ी, लेकिन विज्ञापनदाताओं के लिए विज्ञापन देना और भी खर्चीला हो गया और विज्ञापनों की संख्या लगभग ठहर गई। अखबारो की स्थिति विज्ञापनों के मामले में अच्छी नही रही। 2008 में 3 प्रतिशत बढ़ोतरी के साथ 1.83 लाख का कॉलम सेंटीमीटर तक पहुंचा। वहीम टेलीविजन में विज्ञापनों की संख्या और दिखाए जाने वाले विज्ञापनों का समय बढ़ गया।
ये सारी बातें ये सोचने को मजबूर करती है कि क्या मीडिया इंडस्ट्री 2008 और 2009 में मंदी से सचमुच जूझ रही थी। इन दो सालों में न टी.वी और प्रिंट मीडिया का विज्ञापन घटा, न कारोबार, न दर्शक घटे न पाठक। हद से हद इसे तेज तरक्की के पांच साल बाद का एक अपेक्षाकत कम तेज बढ़ोती का दौंर कहा जा सकता है लेकिन इस दौर को मीडिया उधोग ने अपने लाभ के लिए इस्तेमाल कर लिया और ऐसे बुनियादी और ढांचागत बदलाव कर लिए, जिसका फायदा उसे आने वाले सालों तक मिल सकता है। मिसाल के तौर पर, कर्मचारियों की छंटनी, वेतन बढ़ोतरी पर रोक, कर्मचारियों से ज्यादा काम लेने, काम के घंटे बढ़ाने जैसे कई कदम मंदी के दौर में अपेक्षाकत आसानी मे उठाए गए और कर्मचारियों या सरकार की ओर से इन कदमों का कोई विरोध नहीं किया गया।
देश के बड़े समाचार-पत्रों के मालुकों ने दिल्ली में बैठक करके मिल-जुलकर अखबारों की कीमतें बढ़ाने का फैसला किया। कई मार्केट में अखबारों ने आपसी सहमति से मिलकर दाम बढ़ा दिए। इस वजह से विज्ञापनों से होने वाली आमदनी गिरावट की भरपाई सर्कुलेशन से पूरी हो गई। 2009 में प्रिंट मीडिया की सर्कुलेशन से होने वाली आमदनी पिछले साल के मुकाबले प्रतिशत बढ़कर 7200 करोड़ रूपए हो गई। इस तरह मंदी के साल में भी प्रिंट मीडिया की आमदनी कुल मिलाकर 1.9 प्रतिशत बढ़ी और 2009 में इसकी कुल आमदनी 17500 करोड़ रूपए हो गई। इस तरह वैश्विक आर्थिक मंदी भारतीय मीडिया उधोग के लिए परेशानियों के साथ ही सुविधाएं और बढ़ी हुई आमदनी भी लेकर आया।
                                                  दिये की तरह जलते रहिये

आधी आबादी का हिस्सा भी है इस लोकतंत्र में.



कहा जाता है कि सच्चा लोकतंत्र वही है जहाँ इंसान अपने अधिकारों को साथ ले लेकर पैदा होता है पर हमारा अपना भारत देश इस कथन पर कितना खरा उतरता है इस सच को हम अछ्छी तरह से जानते हैं। आज भी हमारे देश में करोड़ों लोगो को ये भी नहीं पता है की हमारे अधिकार क्या और कौन-कौन से हैं। खेद की बात तो यह है कि देश की आधी आबादी जिस में महिलाएं शामिल हैं वे तो लगता है की बिना किसी अधिकारों के ही काम चला रही है। महिलाओं को अधिकारों से लैस करने में हमारा समाज आज भी आना कानी करता रहा है।
भारत जैसे देश में महिला सशक्तिकरण का काम दुरूह इसलिए भी है क्योंकि सशक्तिकरण की इस प्रक्रिया में एक तो पुरुषों, महिलाओं और युवाओं के दिलो-दिमाग में से लैंगिक पूर्वाग्रह को निकालना है और इसके बदले में सकारात्मक दृष्टिकोण का प्रत्यारोपण करना है। इस काम को अंजाम देने के लिए परिवार और समाज का समर्थन जरूरी है बिना उनके समर्थन के महिलाओं की उन्नति की दिशा में कोई काम नहीं हो सकता।
अभी कुछ समय पहले तक समाज के व्यवहार में परिवर्तन लाने के साधन सीमित हुआ करते थे।पिछले दशक में हुई संचार क्रांति में हुए परिवर्तनो ने विश्व भर के लोगों को मानों एक छोटे से दायरे में ला दिया जिससे लोगों में आपसी सामंजस्यता का इजाफा हुआ और संसार भर की महिलाओं में जागरूकता बढ़ी।
इन सब आधुनिक समय की चेतनाओं के बावजूद आज की वास्तविकता यह है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने महिलाओ की भूमिका को पारंपरिक स्टीरियो टाइप बना रखा है जो महिलाओं की नकारात्मक छवि ही पेश करती है।
और दूसरी तरफ यह भी सच है कि पूरे संसार में महिलाओं को पुरुषों के बराबर हक नहीं है। तभी विश्व स्तर पर महिलाओं की अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए व्यापक स्तर पर कानून बनाये गए है।


भारतीय सिनेमा का यथार्थ



 भारत में सिनेमा केवल मनोरंजन का माध्यम नही है वह एक तरह का लोक माध्यम भी है। हमारे सामाजिक व्यवहार का ये एक अपरिहार्य हिस्सा बन चुका है।महानगरों और शहरों मे ही नही,बल्कि कसबों और गांवों पर भी इसका प्रभाव देखा जा रहा है।फिल्मों के बारे मे निरंतर चलने वाली चर्चाएं,उनके हर कही बजते गाने और फिल्मी नायकों और नायिकाओं के प्रति गहरा आर्कषण यह बताता है कि सिनेमा हमारी वर्तमान लोक चेतना का,हमारी लोक संस्कृति का हिस्सा बन चुका है।आधुनिक भारतीय साहित्य ने जिस तरह आसानी से पश्चिम की यथार्थवादी परंपरा को अपनाया है,उस तरह से सिनेमा ने क्यों नहीं किया?इसने किन परंपरागत तत्वों को अपने में समाहित किया और किनको हटाकर लोक चेतना में अपना स्थान हासिल किया है ये भी जानना जरूरी है।यह जानना और समझना भी जरूरी होगा कि हिंदी सिनेमा किसका प्रतिनिधित्व करता है और हिंदी सिनेमा वास्तव में हिंदी समाज से किस हद तक जुड़ा है।
  1950 को जब भारत ने जब स्वयं को संप्रभु लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया।हिंदी सिनेमा आरंभ से ही संविधान की मूल आत्मा की अभिव्यक्ति का सबसे लोकप्रिय और सशक्त माध्यम रहा है। आमतौर पर फिल्मों को मनोरंजन के रूप मे ही देखा जाता रहा है,लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में देश को बनाए और बताए रखने मे आमतौर पर भारतीय सिनेमा और खासकर हिंदी सिनेमा के योगदान का उचित मूल्यांकन नहीं हो पाया।लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हिंदी फिल्मों ने सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भारतीय गणतंत्र की बुनियादी विशेषताओं को काफी हद तक अपनी पहचान और लोकप्रियता का आधार बनाया है। यही कारण है कि आज भी हिंदी सिनेमा हिंदुस्तान के हर हिस्से में ही नही बल्कि एशियाई देशों के बीच सांस्कृतिक एकता का सबसे बड़ा और मजबूत बना हुआ है।
सिनेमा एक लोकप्रिय माध्यम है।इसमें सब तरह के फिल्मकार सक्रिय हैं। सिनेमा को साहित्य मानने वाले फिल्मकार भी है तो ऐसे फिल्मकार भी हैं जिनके लिए यह महज एक पैसा कमाने और अमीर बनने का जरिया है।ऐसे लोगो के लिए फिल्म न तो एक कला का माध्यम है और न ही वे यह मानते हैं कि मनोरंजन के अलावा सिनेमा का सामाजिक उद्देश्य हो सकता है। सिनेमा यदि कला है और यदि उसका कोई सामाजिक उद्देश्य है तो यह मुमकिन नहीं है कि फिल्मकार फिल्मों का निर्माण करते हुए उसके रचनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर विचार न करे।
    मेरा मानना है कि सिनेमा चाहे मनोरंजन के लिए हो या व्यवसाय के लिए या फिल्म कला की अभिव्यक्ति के लिए उसमे अपने दौर का समाज किसी ना किसी रूप में उजागर हुए बिना नही रह सकता।लोकप्रिय सिनेमा ने भाग्यवाद,सामंती आर्दशवाद,प्रतिरोध पर आधारित बर्बरता,भोगवाद और विलासता को प्रोत्साहित किया है तो दूसरी तरफ ऐसी फिल्में भी बनती रही है जिनमें धार्मिक सदभावना, इनसानी भावना,अहिंसा,सामुदायिक एकता, गरीबों और उत्पीडितों के प्रति गहरी सहानुभूति का भाव भी मिलता हैं। भारतीय फिल्में विचारधारा की दृष्टि से गांधीवादी मानवतावाद से लेकर मार्क्सवादी समाजवाद को तरह तरह से व्यक्त करती रही है। अलग अलग दौर में लोकप्रिय सिनेमा पर हम अलग- अलग तरह के प्रभावों को देख सकते है।

नारी विमर्श


स्त्री- विमर्श तो एक छोटा सा वक्फा है। लड़ाई तो कन्या रूप में जन्म के साथ –जिजीविषा की तरह आरम्भ हो जाती है। यह ऐसी लड़ाई है जो पुरूष प्रधान और पितृ सत्तात्मक, असमान, अक्षम्य मूल्यों वाले समाज में बचपन में ही विकृत समाजीकरण के रूप में शुरू हो जाती है। यूं देखा जाए तो मानव इतिहास के इस सबसे बड़े संघर्ष का कोई विश्वव्यापी सामान्यकृत रिकार्ड नही है। यह नितांत निजी लड़ाई है जो नारी स्वतंत्रता, फेमिनिज्म के नारों व सिद्धांतो से कहीं ज्यादा विषम और विकराल है और हर नारी के जीवन में अलग-अलग समस्याओं के रूप में रूबरू होकर टकराती है- जैसे में सांस अवश्य है।
आज विज्ञापन में जो स्त्री की छवि प्रस्तुत की जा रही है वो छवि नकारामक है। स्त्री को विज्ञापन में मात्र एक वस्तु की तरह इस्तेमाल किया जोता है। नारी की इस छवि को बदलने के लिए पहला कदम स्त्री को ही उठाना होगा।
स्त्री की स्वाभाविक स्थिति का और स्त्री के बुनियादी अधिकारों का समर्थन करते हुए सिमोन द बोउवा का मत है-
मेरे मत से स्त्री का सही द्वन्द्व यह है कि या तो वह अपनी अन्यता की नियति को स्वीकार कर ले या फिर आत्मसत्ता की वैयक्तिकता स्थापित करे। औरत वह मानव प्राणी है, जो मूल्यों के जगत में अपने होने का मूल्य उसी जगत में खोज रही है, जो आर्थिक और सामाजिक संरचना को जानने के लिए अनिवार्य है। हमें नारी को पूरी परिस्थिति के अस्तित्वगत परिप्रेक्ष्य में समझना होगा।

रेलवे की फिक्र

रेल कर्मचारियों की पांच बड़ी यूनियनों ने एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया है। प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर उन्होंने मांग की है कि रेल बजट में यात्री किराये में हुई वृद्धि को वापस न लिया जाए। नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन रेलवेमेन ने तो यहां तक चेतावनी दी है कि अगर इस बढ़ोतरी को वापस लिया गया तो 14 लाख रेल कर्मचारी ‘बगावत करने को मजबूर’ हो जाएंगे। 

ट्रेड यूनियनें कर्मचारियों के वेतन और सुख-सुविधाओं में इजाफे से अलग जाकर कोई मांग उठाएं, ऐसे उदाहरण दुर्लभ ही हैं। स्पष्टत: ये कर्मचारी भारतीय रेलवे की संकटपूर्ण वित्तीय स्थिति से परिचित हैं। वे जानते हैं कि उनका भविष्य तभी सुरक्षित है, जब इस संगठन की सेहत ठीक रहेगी। अब इस्तीफा दे चुके रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी के किराया वृद्धि संबंधी बजट प्रस्तावों पर रेल कर्मचारियों जैसी ही दुर्लभ प्रतिक्रिया आम जन और मीडिया की भी रही है। 

आम तौर पर किराये या किसी सेवा शुल्क में बढ़ोतरी पर विरोध भाव ही देखने को मिलता है। लेकिन इस बार यह समझदारी व्यापक रूप से देखने को मिली है कि रेलवे को धन की सख्त जरूरत है, जिसके बिना सुरक्षित और सुविधापूर्ण यात्रा लगातार दूभर होती जाएगी। यह देश में एक नए तरह का घटनाक्रम है, जो सार्वजनिक विमर्श के परिपक्व होने की झलक देता है। 

अगर लोग फौरी फायदों से उठकर अपने दीर्घकालिक लाभ को देखने लगे हैं, तो उससे देश के बेहतर भविष्य के प्रति भरोसा निस्संदेह मजबूत होगा। यह सस्ती लोकप्रियता की राजनीति करने वाले दलों एवं नेताओं के लिए एक चेतावनी है। अगर ममता बनर्जी की धारणा यह रही होगी कि दिनेश त्रिवेदी पर गाज गिराकर वे अपनी जनपक्षीय छवि को मजबूत कर लेंगी, तो बेशक उन्हें निराशा हाथ लगी होगी। 

विज्ञापन और महिलाएं



 आज संचार साधन ऐसे सशक्त माध्यम के रूप में उभर कर सामने आया है, जो युवा पीढ़ी में जीवन मूल्यों, आदर्शो एंव नैतिक गुणों को गहराई से प्रभावित कर रहा है। उसके पास ऐसी ताकत है जो समाज में व्याप्त बुराईयों और कुरीतियों को नकारात्मक परिणाम के साथ प्रस्तुत कर सजगता बनाए रख सकता है। जहॉ प्रश्न मीडिया में स्त्री की भागीदारी का आता है तो मीडिया में हमे इसके दो रूप दिखाई देते है। एक रूप खालिस बाजारवाद के रंग में रंगा हुआ है। जिसमे उत्तेजक व अर्धनग्न स्त्री तस्वीरों के माध्यम से अधिकाधिक टी.आर.पी बढ़ाने, पाठक वर्ग को अपनी ओर खींचनें का प्रयास दिखाई देता है। और दूसरा रूप बौद्धिक और भावनात्मक रूप से परिपक्व नारी का जिसमें घर पर और संस्कति को बनाए रखने का भाव भी दिखाई देता है।
आज की उपभोक्ता संस्कृति बाजारवाद, आर्थिक उदारीकरण ने स्त्री को ही खरीदार और स्त्री को ही प्रोडक्ट बेचने का माध्यम बनाया है। उसने सौन्दर्य प्रतियोगिताओं, ग्लैमर, मॉडलों, कलाकारों के माध्यम के माध्यम से एक विशिष्ट स्त्री की छवि गढ़ी है। स्त्री के विवेक व तर्कशक्ति को नजरअन्दाज कर उसे मात्र वस्तु बना दिया जा रहा है, उसकी सुदंरता ही उसके जीवन का लक्ष्य मान लिया गया है। पहले वह अनभिज्ञता के कारण शोषित होती रही, फिर भी शोषित होती रही और आज वह सक्षम होकर भी अपनी लालसा, होड़ अंह के कारण शोषित हो रही है, पर इस शोषण के मुक्ति के उसे अपनी देह की सुकोमलता, मजबूरी, सुचिता, देह प्रदर्शन जैसी भावना से उभर कर अपनी बौद्धिक और भावनात्मक श्रेष्ठता का परिचय देना होगा। इस दष्टि से जो नारी वर्ग सफल है उसे भ्रमित हुए बिना नारी वर्ग का मार्गदर्शन करना होगा और आवश्यकता पड़ने पर उनकी भर्तसना भी करनी होगी। राजनीति उधोग जगत, फिल्मी दुनिया, प्रशासनिक सेवा मे शिखर पर पहुंची सफल महिलाओं को समाज के प्रति अपने दायित्व निभाने की आवश्यकता है।
नाम में ये कैसा मकड़जाल बन गया है, ये कैसी दष्टि उलझ गई,
बुद्धि विवेक पर ये कैसा मेकअप चढ़ गया है,
स्नेह प्रेम पर ये कैसा जीरो फिगर क गया है,
स्व को भूल नारी मन ना जाने क्या तलाश रहा है,
थोड़ा रूक विचार करना होगा,
अपनी दष्टि से अपना मार्ग स्वयं चुन्ना होगा ।
ग्लैमर, वैभव के क्षणिक,
गुम ना हो जावे अपनी ही पहचान में।।
मैं खबर और विचार पाठकों को बेचता हूं और अपने पाठको को विज्ञापनदाताओं को बेचता हूं।
(पी.जी पवार, मराठी समाचार-पत्र समूह सकाल के प्रबंध निदेशक)
अगर किसी के पास दर्शक या पाठक है तो उनकी पैकेजिंग की जा सकती है, उनकी कीमत लगाई जा सकती है और उन्हे विज्ञापनदाताओं को बेचा जा सकता है।      -जालियन डॉयल
यह उन सवालों का जवाब है कि मीडिया अगर इडस्ट्री है तो यहां खरीदार कौन है, बेचने वाला कौन और बेचा क्या जा रहा है। परंपरागत तरीके से कहा जा सकता है कि मीडिया हाउस विक्रेता यानी बेचने वाले है, पाठक और दर्शक खरीदने वाले है और इस बाजार में जो चीज बेची जा रही है ,वे है अखबार, पत्रिकाएं, टी.वी कार्यक्रम या इटंरनेट के कंटेंट यानी समाचार, विचार, फीचर, तस्वीरें और कार्टून आदि। लेकिन इस फरीद-ब्रिकी में मीडिया इंडस्ट्री के कुल राजस्व के सिर्फ 10 से 20 प्रतिशत का लेन-देन है रहा हो तो भी क्या पाठक और दर्शक के नाते कोई कह सकता है कि वही असली खरीदार है? मीडिया कारोबार में जो चीज मुख्य रूप से बेची जा रही है वे पाठक और दर्शक है। विज्ञापनदाताओं के हाथों पाठको और दर्शको को बेचकर ही मीडिया इडंस्ट्री का 80 से 90 प्रतिशत तक पैसा आ रहा है। इस सौदे में बेचने वाले तो मीडिया हाउस ही है और खरीदार है विज्ञापनदाता और बिकने वाली चीज है पाठक और दर्शक।
मनोवैज्ञानिक दष्टि से, शारीरिक विचार से और सामाजिक जीवन की व्यवस्था से स्त्री और पुरूष में विशेष अन्तर रहा है और भविष्य में भी रहेगा, परन्तु यह मानसिक या शारीरिक भेद न किसी की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता है और न किसी की हीनता का विज्ञापन करता है। स्त्री ने स्पष्ट कारणों के अभाव में इस अन्तर को विशेष बुराई समझा केवल यही सच नही है, वरन यह भी जानना होगा कि उसने सामाजिक अन्तर का कारण ढूढने के लिए स्त्रीत्व को क्षत-विक्षत कर डाला।
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